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ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poem-Deepak Raj Kukreja “”Bharatdeep””
Gwalior, madhyapradesh
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इस संसार में सर्वशक्तिमान के अनेक रूपों की प्रथा सदैव रही है। स्थिति यह भी है कि एक रूप भजने वाला दूसरे रूप की दरबार में जाना पसंद नहीं करता। इतना ही नहीं अनेक तो दूसरे रूप के दरबार में जाने से अपना धर्म भ्रष्ट हुआ मानते हैं। वैसे तो धार्मिक कर्मकांड और अध्यात्मिक दर्शन में अंतर है पर चालाक मनोचिकित्सक सर्वशक्तिमान के दूत बनकर उसके रूपों की आड़ में भक्ति का व्यापार करते हैं। अगर हम श्रीमद्भागवत गीता के संदेशों का अध्ययन करें तो यह बात साफ हो जाती है कि धर्म से आशय केवल आचरण से है। विदेशी धार्मिक विचाराधारा में कभी अपने प्रतिकूल टिप्पणियां स्वीकार नहीं की जाती जबकि भारत में अपने ही धार्मिक अंधविश्वासों पर चोट करने में अध्यात्मिक ज्ञानी संत हिचकते नहीं हैं। इतना ही नहीं भारतीय धर्म में अंधविश्वास हटाने तथा उसकी रक्षा करने के लिये सिख धर्म का प्रादर्भाव हुआ। उसके प्रवर्तक भगवान गुरुनानक जी को हर भारतीय अपना इष्ट ही मानता है। यही कारण है कि हमारे धर्मों में ज्ञान की प्रधानता रही है। योगी, ज्ञानी या साधक सर्वशक्तिमान के किसी रूप के दरबार में जाये, उसकी अध्यात्मिक शक्ति सदैव प्रबल रहती है।
भारतीय दर्शन के अनुसार ज्ञानी केवल एक जगह बैठकर भगवान का भजन करे ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। ज्ञानी और योगी को को सांसरिक विषयों से सकारात्मक भाव से जुड़कर दूसरों को भी प्रेरित करना चाहिये। इधर भारतीय प्रधानमंत्री के अमीरात दौरे पर एक मस्जिद जाने पर चर्चा हो रही है। आधुनिक दौर में शक्तिशाली संचार माध्यमों के बीच किसी भी राष्ट के प्रमुख मजबूत और चतुर होने के साथ ही वैसा दिखना भी जरूरी है। कोई राष्ट्रप्रमुख दूसरे राष्ट्र में जाकर अपनी बात प्रभावी ढंग से प्रचारित करता है तो प्रजा प्रसन्न होती है। भारत के लिये यह जरूरी है कि आधुनिक दौर में उसका प्रमुख राष्ट्र की सीमा से बाहर भी अपनी मजबूत छवि बनाये। महत्वपूर्ण बात यह कि राष्ट्रप्रमुख अपनी आस्था और संस्कार का इस तरह प्रदर्शन करे कि वह दूसरे को अपनी लगे। इससे उसकी लोकप्रियता बढ़ती भी है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior
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भारत और चीन के बीच अध्यात्मिक संपर्क का महत्व-21 जून अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस पर विशेष हिन्दी चिंत्तन लेख
June 20, 2015भारतीय प्रधानमंत्री श्रीनरेंद्र मोदी की चीन यात्रा के दौरान राजनीतिक विषयों पर चर्चा huee पर जिस तरह इसमें अध्यात्मिक तथा धार्मिक तत्व के दर्शन हुए वह नये परिवर्तन का संकेत हैं। आमतौर से वामपंथी विचाराधारा के चीनी नेता धर्म जैसे विषय पर सार्वजनिक रूप से मुखर नहीं होते न ही अपने देश से बाहर के लोग प्रेरित करते। जिस तरह नरेंद्र मोदी ने वहां जाकर बौद्धिवृक्ष का पौद्या उपहार के रूप में सौंपा और प्रत्युपहार में उन्हें बुद्ध की स्वर्णिम प्रतिमा सौंपी गयी वह वैश्विक राजनीतिक में एक नया रूप है।
चीनी नेताओं ने जिस तरह शियान के बौद्ध मंदिर में फोटो खिंचवाये उससे यह लगता है कि अभी तत्काल नहीं तो भविष्य में चीनी जनता के हृदय में भारत के प्रति परिवर्तन अवश्य आयेगा। अभी तक विश्लेषकों की जानकारी सही माने तो वहां पाकिस्तान केा मित्र तथा भारत को विरोधी ही माना जाता है। हमारा मानना है कि जब तक चीनी प्रचार माध्यम जब तक भारत के प्रति वहां के जनमानस में सद्भाव नहंी स्थापित करते तब दोनों के बीच राजनीतिक साझेदारी जरूर बने पर संास्कृतिक तथा सांस्कारिक संपर्क स्थाई नहंी बन सकते।
वैसे हमें लगता है कि चीनी रणनीतिकार भारत के प्रति कृत्रिम सद्भाव दिखा रहे हैं क्योंकि वह धार्मिक विचाराधारा को अपनी राजकीय सिद्धांत बनाने वाले पाकिस्तान के प्रति उनकी बढ़ती निकटता भारत के लिये खतरा ही है। बौद्ध और भारतीय धर्म समान सिद्धांतों पर आधारित हैं। भारत में जैन धर्म के प्रवर्तक भगवान महावीर तो भगवान बौद्ध के न केवल समकालीन वरन् समकक्ष ही माने जाते हैं। दोनों ही अहिंसा सिद्धांत के प्रवर्तक रहे हैं। एक आम भारतीय के लिये भगवान महावीर तथा बुद्ध में समान श्रद्धा है। ऐसे में अध्यात्मिक चिंत्तकों के लिये चीन का धार्मिक तत्व के प्रति झुकाव दिखना रुचिकर है। पाकिस्तान की राजकीय विचाराधारा चीन तथा भारत दोनों के लिये समान चुनौती है जिसमें धर्म के आधार पर आतंकवाद निर्यात किया जाता है। ऐसे में चीन का उससे मेल संशय का परिचायक है। साथ ही यह विचार भी आता है कि कहीं चीन का राजनीति में धार्मिक तत्व का मेल कहीं इस समय भारत से तात्तकालिक औपचारिकता निभाने भर तो सीमित नहीं है।
एक बात तय है कि भारत और चीन की निकटता में अध्यात्म तत्व ही महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। सांसरिक विंषयों से बने संपर्क अधिक समय तक नहीं टिके रहते।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर
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इस संसार में दो प्रकार के लोग होते हैं-एक भोगी तथा दूसरे योगी। भोगी लोग जीवन में विषयों में लिप्तता को ही सर्वोपरि मानते हैं। भोगी लोगउपभोग के सामानों का संग्रह ही अपना लक्ष्य मानते हुए अपना जीवन उन्हीं को समर्पित कर देते हैं जबकि योगी लोग भौतिक सामानों का जीवन में आनंद उठाने का साधन मानकर समाज के लिये आदर्श स्थितियों का निर्माण करने में लगे रहते हैं। ज्ञानियों की दृष्टि में बिना सामानों के भी जीवन में उठाया जा सकता है। उल्टे अधिक सामानों का संग्रह चिंता तथा तनाव का कारण होता है। कुछ लोग स्वादिष्ट भोजन के चक्कर में अनेक प्रकार स्वांग रचते हैं जबकि योगी तथा ज्ञानी भोजन को देह पालने की दृष्टि से दवा के रूप में ग्रहण करते हैं।
भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि
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क्वचित् पृथ्वीशय्यः क्वचिदपि च पर्वङ्कशयनः क्वच्छिाकाहारः क्वचिदपि च शाल्योदनरुचिः।
क्वचित्कन्धाधारी क्वचिदपि च दिव्याभवरधरोः मनस्वी कार्यार्थी न गपयति दुःखः न च सुखम्।।
हिन्दी में भावार्थ-कभी प्रथ्वी पर सोना पड़े कभी पलंग पर मखमली बिछोने पर शयन का सौभाग्य मिले, कभी बढ़िया तो कभी सादा खाना मिले, जिनकी रुचि अपने लक्ष्य में रहती है वह कभी इन बातों की परवाह नहीं करते। मनस्वी पुरुष दुःख सुख की चिंता में न पड़कर कभी सामान्य तो कभी दिव्य वस्त्र पहनकर अपने जीवन मार्ग पर दृढ़ता पूर्वक बढ़ते हुए दूसरों के सामने अपना आदर्श प्रस्तुत करते हैं।
सच बात तो यह है कि उपभोग की प्रवृत्ति मनुष्य को कायर बना देती है। वह किसी बड़े सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक अथवा सांस्कृतिक अभियान में लंबे समय तक सक्रिय नहीं रह पाता। इतना ही अधिक उपभोग मानसिक, वैचारिक तथा अध्यात्मिक से कमजोर भी बनाता है। हम इसे अपने देश में अनेक सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक तथा साहित्यक अभियानों का नेतृत्व करने वाले कथित शीर्ष पुरुषों की क्षीण वैचारिक, मानसिक तथा अध्यात्मिक स्थिति को देखकर समझ सकते है। यह सभी कथित शीर्ष पुरुष बातें बड़ी बड़ी करते हैं पर किसी का अभियान लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाता। इसका कारण यह है कि जिनका जीवन सुविधाओं के साथ व्यतीत होता है वह अपने कथित अभियानों की वजह से लोकप्रियता भले ही प्राप्त कर लें पर उनमें इतनी क्षमता नहीं होती कि वह अपने सिद्धांतों या वादों को धरातल पर उतार सकें। इसके लिये जिस त्याग भाव की आवश्यकता होती है वह केवल उन्हीं लोगों में हो सकता है जो सुविधायें मिलने की परवाह न करते हुए मनस्वी हो जाते हैं।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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हमारे देश में समाज ने शिक्षा, रहन सहन, तथा चल चलन में पाश्चात्य शैली अपनायी है पर वार्तालाप की शैली वही पुरानी रही है। उस दिन हमने देखा चार शिक्षित युवा कुछ अंग्रेजी और कुछ हिन्दी में बात कर रहे थे। बीच बीच में अनावश्यक रूप से गालियां भी उपयोग कर वह यह साबित करने का प्रयास भी कर रहे थे कि उनकी बात दमदार है। हमने देखे और सुने के आधार पर यही समझा कि वहां वार्तालाप में अनुपस्थित किसी अन्य मित्र के लिये वह गालियां देकर उसकी निंदा कर रहे हैं। उनके हाथ में मोबाइल भी थे जिस पर बातचीत करते हुए वह गालियों का धड़ल्ले से उपयोग कर रहे थे। कभी कभी तो वह अपना वार्तालाप पूरी तरह अंग्रेजी में करते थे पर उसमें भी वही हिन्दी में गालियां देते जा रहे थे। हमें यह जानकर हैरानी हुई कि अंग्रेजी और हिन्दी से मिश्रित बनी इस तोतली भाषा में गालियां इस तरह उपयोग हो रही थी जैसे कि यह सब वार्तालाप शैली का कोई नया रूप हो।
संत कबीर कहते हैं कि
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गारी ही से ऊपजे कष्ट और मीच।
हारि चले सो सन्त है, लागि मरै सो नीच।।
सामान्य हिन्दी में भावार्थ-गाली से कलह, कष्ट और झंगडे होते हैं। गाली देने पर जो उत्तेजित न हो वही संत है और जो पलट कर प्रहार करता है वह नीच ही कहा जा सकता है।
आवत गारी एक है, उलटत होय अनेक।
कहें कबीर नहि उलटियो, वही एक की एक।।
सामान्य हिन्दी में भावार्थ-जब कोई गाली देता है तो वह एक ही रहती है पर जब उसे जवाब में गाली दी जाये तो वह अनेक हो जाती हैं। इसलिये गाली देने पर किसी का उत्तर न दें यही अच्छा है।
कई बार हमने यह भी देखा है कि युवाओं के बीच केवल इस तरह की गालियों के कारण ही भारी विवाद हो जाता है। अनेक जगह हिंसक वारदातें केवल इसलिये हो जाती हैं क्योंकि उनके बीच बातचीत के दौरान गालियों का उपयोग होता है। जहां आपसी विवादों का निपटारा सामान्य वार्तालाप से हो सकता है वह गालियों का संबोधन अनेक बार दर्दनाक दृश्य उपस्थित कर देता है।
एक महत्वपूर्ण बात यह कि अनेक बार कुछ युवा वार्तालाप में गालियों का उपयोग अनावश्यक रूप से यह सोचकर करते हैं कि उनकी बात दमदार हो जायेगी। यह उनका भ्रम है। बल्कि इसका विपरीत परिणाम यह होता है कि जब किसी का ध्यान गाली से ध्वस्त हो तब वह बाकी बात धारण नहीं कर पाता। यह भी एक मनोवैज्ञानिक सत्य है वार्तालाप क्रम टूटने से बातचीत का विषय अपना महत्व खो देता है और गालियों के उपयोग से यही होता है। इसलिये जहां अपनी बात प्रभावशाली रूप से कहनी हो वहां शब्दिक सौंदर्य और उसके प्रभाव का अध्ययन कर बोलना चाहिये। अच्छे वक्ता हमेशा वही कहलाते हैं जो अपनी बात निर्बाध रूप से कहते हैं तो श्रोता भी उनकी सुनते हैं। गालियों का उपयोग वार्तालाप का ने केवल सौंदर्य समाप्त करता है वरन उसे निष्प्रभावी बना देता है।
दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
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