लेखक संपादक दीपक भारतदीप,ग्वालियर (मध्य प्रदेश)

Tag Archives: हिन्दी रचना

आजकल बड़े तथा पहुंचे हुए लोगों से संपर्क बनने की कुछ प्रवृत्ति ही अधिक हो गयी है। पुलिस, प्रशासन, राजनीति से जुड़े तथा अर्थजगत के शिखर पुरुषों के साथ मेल कर लोग बहुत खुश होते हैं। सामान्य आदमी से मित्रता या व्यवहार करना अब लोगों के लिये बोझ बन गया है। अनेक लोग तो केवल पुलिस अधिकरियों, प्रशासन में उच्च पदस्थ तथा राजनीति में सक्रिय लोगों से एक दो बार मिल क्या लेते हैं सभी जगह उनसे अपने संपर्क होने की गाथा गाते हुए थकते नहीं है।
हर आदमी सामान्य स्तर के मित्रों, रिश्तेदारों और साथियों को हेय दृष्टि से देखता है क्योंकि उसको लगता है कि यह किसी काम के नहीं है। जबकि सच यह है कि अपने जीवन की दिनचर्या से जुड़े यही लोग बहुत काम के होते हैं यह अलग बात है कि वह समस्यायें सहजता से दूर करते हैं इसलिये इसका आभास नहीं होता।
कविवर रहीम कहते हैं कि
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रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिये डारि।
जहां काम आवे सुई, कहा करे तलवारि।।
‘‘बड़े लोगों को देखकर छोटे लोगों की उपेक्षा नहीं करना चाहिए। जहां सुई काम आती है वहां तलवार कुछ नहीं कर पाती।’’
हमारे साथ कुछ सामान्य लोग ऐसे होते हैं जिनके पास रहते हुए उनकी उपयोगिता का अनुभव नहीं होता इसलिये बड़ी हस्तियों से संपर्क बनाने लगते हैं। जबकि सच यह है कि बड़े तथा अमीर लोग केवल स्वार्थ की वजह से छोटे लोगों से संपर्क रखते हैं ताकि समय आने पर उनकी मदद मिल जाये न कि उनकी मदद करें। ऐसी अनेक घटनायें हुई हैं जिनमें लोग बड़े बड़े संपर्क होने का दावा करते हैं पर संकट आने पर उनको अपने आसपास के सामान्य लोगों की सहायता पर ही आश्रित रहना पड़ा है। साथ ही यह भी देखा गया है कि विपत्ति आने पर छोटे लोग फिर भी सहारा देते हैं जबकि बड़े लोग मुंह फेर लेते हैं।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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खुश लोग अक्सर खामोश दिखते हैं पर खुश भी वही रहते हैं। जिन लोगों को बहस सुनने या करने की आदत है वह हमेशा तकलीफ उठाते हैं। अनेक बार तो हम देखते हैं कि लोगों के बीच अनावश्यक विषयों पर वाद विवाद होने पर खूनखराबा हो जाता है। ऐसे वाद विवाद अक्सर अपने लोगों के बीच ही होते हैं। कई बार रिश्ते और मित्रता शत्रुता में परिवर्तित हो जाती है।
मनुष्य का स्वभाव कुछ ऐसा होता है कि वह बचपन से लेकर बुढ़ापे तक एक जैसा ही रहता है। युवावस्था में तो यह सब पता नहीं चलता पर बुढ़ापे में शक्ति क्षीण होने पर मनुष्य के लिये ज्यादा बोलना अत्यंत दुःखदायी हो जाता है। उस समय उसे मौन रहना चाहिए पर कामकाज न करने तथा हाथ पांव न चलाने की वजह से उसे बोलकर ही अपना दिल बहलाना पड़ता है और परिणाम यह होता है कि उसे अपमानित होने के साथ ही मानसिक तकलीफ झेलनी पड़ती है। दरअसल शांत बैठने की प्रवृत्ति का विकास युवावस्था में ही करना चाहिए जिससे उस समय भी व्यर्थ के वार्तालाप में ऊर्जा के क्षीण होने के दोष से बचा जा सकता है और बुढ़ापे में भी शांति मिलती है। शांत बैठना भी एक तरह से आसन है। 
इस विषय  पर मनु महाराज कहते हैं कि 
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क्षीणस्य चैव क्रमशो दैवात् पूर्वकृतेन वा।
मित्रस्य चानुरोधेन द्विविधं स्मृतमासनम्।।
“जब शक्ति क्षीण हो जाने पर या अपनी गलतियों के कारण चुप बैठना तथा मित्रों की बात का सम्मान करते हुए उनसे विवाद न करना यह दो प्रकार के शांत आसन हैं।”
उसी तरह मित्रों से भी जरा जरा बात पर विवाद नहीं करना श्रेयस्कर है। आपसी वार्तालाप में मित्र ऐसी टिप्पणियां भी करते हैं जो नागवार लगती हैं पर उस पर इतना गुस्सा जाहिर नहीं करना चाहिए कि मित्रता में बाधा आये। घर परिवार के सदस्यों को उनकी गल्तियों पर समझाना चाहिये कि अगर कोई न माने तो शांत ही बैठ जायें क्योंकि यह जीवन हरेक की स्वयं की संपदा है और जिसका मन जहां जाने के लिये प्रेरित करेगा उसकी देह वहीं जायेगी। यह अलग बात है कि परिणाम बुरा होने पर लोग रोते हैं पर यहां कोई किसी की बात नहीं मानता। ऐसे में शांत आसन का अभ्यास बुरा नहीं है।
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मनुष्य अगर योगसाधना, अध्यात्मिक अध्ययन तथा दान आदि करे तो उसके व्यक्तित्व में चार चांद लग जाते हैं पर इसके लिये आवश्यक है कि वह सहज भाव के मार्ग का अनुसरण करे। सहज भाव मार्ग दिखने में बड़ा कठिन तथा अनाकर्षक है क्योंकि इसके लिये अच्छी आदतों का होना जरूरी है जो अपने अंदर डालने में कठिनाई आती है। सहज मार्ग में त्याग के भाव की प्रधानता है जबकि मनुष्य कुछ पाकर सुख चाहता है। त्याग के भाव के विपरीत यह मनुष्य का स्वभाव है कि वह व्यसनों की तरफ आकर्षित होता है क्योंकि वह त्वरित रूप से सुख देते हैं। शराब, तंबाकु, जुआ तथा मनोरंजक दृश्य देखकर मनुष्य बहुत जल्दी सुख पा लेता है यह अलग बात है कि कालांतर में वह तकलीफदेह होने के साथ ही उकताने वाले भी होते हैं, मगर तब तक मनुष्य अपनी शारीरिक तथा मानसिक शक्ति गंवा चुका होता है और तब अध्यात्मिक मार्ग अपनाना उसके लिये कठिन होता है।
व्यसनों के विषय पर महाराज कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में कहा है कि
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यस्माद्धि व्यसति श्रेयस्तस्माद्धयसमुच्यते।
व्यसन्योऽयो व्रजति तस्मात्तपरिवर्जयेत्।।
‘‘जिसका नाम व्यसन है उससे सारे कल्याण दूर हो जाते हैं। व्यसन से पुरुष का पतन होता है इस कारण उसे त्याग दे।’’
आजकल तंबाकु के पाउचों का सेवन जिस तरह हो रहा है उसे देखकर यह कहना कठिन है कि युवाओं में कितने युवा हैं। विभिन्न विषैले रसायनों से बने यह पाउच युवावस्था में ही फेफड़ों, दिल तथा शरीर के अंगों में विकृतियां लाते हैं। यह सब चिकित्सकों का कहना है न कि कोई अनुमान! शराब तो अब सांस्कृतिक कार्यक्रमों का एक भाग हो गयी है। उससे भी बड़ी बात यह कि अब तो मंदिर आदि के निर्माण के लिये पैसा जुटाने के लिये नृत्य और गीत के कार्यक्रम आयोेजित किये जाते हैं। इस तरह पूरा समाज ही व्यसनों में जाल में फंसा है। ऐसे में यह आशा करना कि धर्म का राज्य होगा एक तरह से मूर्खता है।
ऐसे में सात्विक पुरुषों को चाहिए कि वह अपनी योगसाधना, ध्यान तथा पूजा पाठ एकांत में करके ही इस बात पर संतोष करें कि वह अपना धर्म निर्वाह कर रहे हैं। इसके लिये संगत मिलने की अपेक्षा तो कतई न करें।
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खुश रहना भी एक कला है जो हमारे अंतर्मन में विराजमान रहती है। हम अक्सर आपनी आखों से दूसरों के दोष देखने, कानों से दूसरे का अहित सुनने और वाणी से दूसरे के लिए निंदात्मक वाक्य कहने के आदी हो जाते हैं। यह आदत भले ही हमें अच्छी लगती है पर कालांतर में यह हमारे लिये मानसिक तनाव का ऐसा कारण बनर जाती है कि हमें कोई अच्छी चीज दिखाई नहीं देती। यहां तक सुखद वस्तुओं से स्वतः घृणा होने लगती है। हमारा स्वभाव नकारात्मक हो जाता है और इससे हम स्वयं ही नकारा हो जाते हैं।
आपने देखा होगा कि कुछ लोग हमेशा ही दूसरों से विनम्रता से पेश आते हैं और हमेशा ही अन्य लोगों को ‘बहुत अच्छा’ या ‘बहुत बढ़िया’ उनको प्रेरित करते हैं। भले ही लोग उनको चाटुकार या झूठा कहें पर सच यह है कि ऐसे लोग सकारात्मक विचाराधारा के होते हैं और अपनी जिंदगी आनंद से जीते हैं।
इस विषय पर मनु महाराज कहते हैं कि
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भद्र भद्रमिति ब्रूयाद् भ्रदमित्येव वा वदेत्।
शुष्कवैरं विवादं च न कुर्यात्केनचित्साह।।
‘‘सभ्य आदमी को हमेशा दूसरे के काम पर ‘बहुत बढ़िया‘ ‘बढ़िया’ ‘बहुत अच्छा’ या अच्छा जरूर बोलना चाहिये। किसी से व्यर्थ विवाद और शत्रुता नहीं करना चाहिये। न ही रूखा व्यवहार कर दूसरे को हतोत्तासहित करना चाहिये।’’
इस संसार में सभी लोग लोकप्रिय नहीं होते। कुछ तो अपने दृष्कृत्यों की वजह से निंदा का पात्र बनते हैं। अपने स्वार्थ में मस्त रहने वाले लोगों को कौन सम्मान देता है? समाज में वही मनुष्य लोकप्रिय होता है जो दूसरों को भी अच्छे काम के लिये प्रेरित करता है। इसलिये हमेशा ही हर पल दूसरे के काम पर उसकी प्रशंसा में बहुत अच्छा या अच्छा जरूर बोलना चाहिये। कहीं लिखकर किसी के कार्य की प्रशंसा करनी हो तो उसके लिये बहुत बढ़िया या बढ़िया शब्दों के उपयोग  की आदत डालना चाहिये। इससे न हमारा स्वभाव सकारात्मक होगा बल्कि दूसरों के बीच लोकप्रियता भी मिलेगी।
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