लेखक संपादक दीपक भारतदीप,ग्वालियर (मध्य प्रदेश)

Category Archives: धर्म

>पावस देखि रहीम मन, कोइल साधे मौन
अब दादुर वक्ता भए, हमको पूछत कोय

कविवर रहीम कहते है कि वर्षा ऋतु आते ही मेंढको की आवाज चारों तरफ गूंजने लगती है तब कोयल यह सोचकर खामोश हो जाती है कि उसकी आवाज कौन सुनेगा।

     वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-अक्सर हम देश में संगीत, साहित्य, खेल और अन्य कला क्षेत्रों में प्रतिभाओं की कमी की शिकायत करते हैं। यह केवल हमारा भ्रम है। 105 करोड़ लोगों के इस देश में एक से एक प्रतिभाशाली लोग हैं। एक से एक ऊर्जावान और ज्ञानवान लोग हैं। भारतभूमि तो सदैव अलौकिक और आसाधारण लोगों की जननी रही है। हां, आजकल हर क्षेत्र व्यवसायिक हो गया है। जो बिकता है वही दिखता है। इसलिये जो चाटुकारिता के साथ व्यवसायिक कौशल में दक्ष हैं या जिनका कोई गाडफादर होता है वही चमकते हैं और यकीनन वह अपने क्षेत्र में मेंढक की तरह टर्राने वाले होते हैं। थोड़ा सीख लिया और चल पड़े उसे बाजार में बेचने जहां माया की बरसात हो। जो अपने क्षेत्रों में प्रतिभाशाली हैं और जिन्होंने अपनी विधा हासिल करने के लिये अपनी पूरी शक्ति और बुद्धि झोंक दी और उनकी प्रतिभा निर्विवाद है वह कोयल की तरह माया की वर्षा में आवाज नहीं देते-मतलब वह किसी के घर जाकर रोजगार की याचना नहीं करते और आजकल तो मायावी लोग किसी को अपने सामने कुछ समझते ही नहीं और उनको तो मेंढक की टर्राने वाले लोग ही भाते हैं।
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   &nbspकई बार देखा होगा आपने कि फिल्म और संगीत के क्षेत्र में देश में प्रतिभाओं की कमी की बात कुछ उसके कथित अनुभवी और समझदार लोग करते हैं पर उनको यह पता ही नहीं कि कोयल और मेंढक की आवाज में अंतर होता है। एक बार उनको माया के जाल से दूर खड़े होकर देखना चाहिए कि देश में कहां कहां प्रतिभाएं और उनका उपयोग कैसा है तब समझ में आयेगा। मगर बात फिर वही होती है कि वह भी स्वयं मेंढक की तरह टर्रटर्राने वाले लोग हैं वह क्या जाने कि प्रतिभाएं किस मेहनत और मशक्कत से बनती हैं। वैसे बेहतर भी यही है कि अपने अंदर कोई गुण हो तो उसे गाने से कोई लाभ नहीं है। एक दिन सबके पास समय आता है। आखिर बरसात बंद होती है और फिर कोयल के गुनगनाने का समय भी आता है। उसी तरह प्रकृति का नियम है कि वह सभी को एक बार अवसर अवश्य देती है और इसीलिये कोई कोयल की तरह प्रतिभाशाली है तो उसे मेंढक की तरह टर्रटर्राने की आवश्यकता नहीं है और वह ऐसा कर भी नहीं सकते। हमें प्रतिभाशालियों का इसलिये सम्मान और प्रशंसा करना चाहिए कि स्वभावगतः रूप से दूसरे की चाटुकारिता करने का अवगुण उनमें नहीं होता।
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप


     इस संसार में अनेक प्रकार के जीव हैं और सभी के लिये प्रकृति ने भोजन पानी का इंतजाम किया है। मनुष्य भी उनमें एक है पर जितनी बुद्धि उसमें अधिक है उतना ही वह भ्रमित होता है। लोग दावा करते हैं कि वह अपने कर्म से अपना परिवार पाल रहे हैं पर यह नहीं जानते कि वह तो केवल कारण है वरना कर्ता तो परमात्मा ही है। इसी भ्रम में मनुष्य जीवन गुजार लेता है पर उस परमात्मा का स्मरण नहीं करता जिसे उसे मनुष्य योनि प्रदान की है।
     कुल करनी के कारनै, हंसा गया बिगोय
तब कुल काको लाजि, चारि पांव का होय
     संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अपने परिवार की मर्यादा के लिये आदमी ने अपने आपको बिगाड़ लिया वरना वह तो हंस था। उस कुल की मर्यादा का तब क्या होगा जब परमार्थ और सत्संग के बिना जब भविष्य में उसे पशु बनना पड़ेगा।
दुनिया के धोखे मुआ, चल कुटुंब की कानि
तब कुल की क्या लाज है, जब ले धरा पसानि
     संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते है यह दुनियां एक धोखा है जिसमें आदमी केवल अपने परिवार के पालन पोषण के लिये हर समय जुटा रहता है। वह इस बात का विचार नहीं करता कि जब उसका शरीर निर्जीव होकर इस धरती पर पड़ा रहेगा तब उसके कुल शान का क्या होगा?
     वर्तमान  सन्दर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य मन को हंस भी कहा जाता है पर उसे कोई उड़ने दे  तभी उसे  समझा जा सकता है। हर कोई अपने विचार और लक्ष्यों का दायरा संकीर्ण कर लेता है। अपने और परिवार के हित के आगे उसे कुछ नहीं सूझता। कई लोग मन में शांति न होने की बात कहते हैं पर उसके पाने लिये कोई यत्न नहीं करते। मन एकरसता से ऊब जाता है। स्वार्थ सिद्धि में डूबा मन   एकरसता से ऊब जाता है पर बुद्धि परमार्थ के लिए प्रेरित नहीं होती। अगर थोड़ा परमार्थ भी कर लें तो एक सुख का अनुभव होता है। परमार्थ का यह आशय कतई नहीं है कि अपना सर्वस्व लुटा दें बल्कि हम किसी सुपात्र व्यक्ति की सहायता करने के साथ  किसी बेबस का सहारा बने।

     वैसे लुटाने को लोग लाखों लुटा रहे हैं। अपने परिवार के नाम प्याऊ या किसी मंदिर में बैच या पंखा लगवाकर उस पर अपने परिवार का परिचय अंकित करवा देते हैं और स्वयं ही दानी होने का प्रमाणपत्र ग्रहण करते हैं। इससे मन को शांति नहीं मिलती। दूसरों से दिखावा कर सकते हो पर अपने आप से वह संभव नहीं है। हम हर जगह अपने कुल की परिवार की प्रतिष्ठा लिये घूमते हैं पर अपनी आत्मा से कभी परिचित नहीं होते। इसके लिये जरूरी है कि समय निकालकर भक्ति और संत्संग के कार्यों में बिना किसी दिखावे के निष्काम भाव से सम्मिलित हों। कामना के साथ दान या भक्ति करने से मन को कभी शांति नहीं मिलती। उस पर अगर कुल प्रतिष्ठा किए रक्षा का विचार में में आ जाए तो फिर मनुष्य अपना जीवन ही नारकीय हो जाता है।  दूसरी बात यह ही कि इस संसार का पालनहार तो परमात्मा है तब हम अपने परिवार को पालने का दावा कर सवयं को धोखा देते हैं । 

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संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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आजकल बड़े तथा पहुंचे हुए लोगों से संपर्क बनने की कुछ प्रवृत्ति ही अधिक हो गयी है। पुलिस, प्रशासन, राजनीति से जुड़े तथा अर्थजगत के शिखर पुरुषों के साथ मेल कर लोग बहुत खुश होते हैं। सामान्य आदमी से मित्रता या व्यवहार करना अब लोगों के लिये बोझ बन गया है। अनेक लोग तो केवल पुलिस अधिकरियों, प्रशासन में उच्च पदस्थ तथा राजनीति में सक्रिय लोगों से एक दो बार मिल क्या लेते हैं सभी जगह उनसे अपने संपर्क होने की गाथा गाते हुए थकते नहीं है।
हर आदमी सामान्य स्तर के मित्रों, रिश्तेदारों और साथियों को हेय दृष्टि से देखता है क्योंकि उसको लगता है कि यह किसी काम के नहीं है। जबकि सच यह है कि अपने जीवन की दिनचर्या से जुड़े यही लोग बहुत काम के होते हैं यह अलग बात है कि वह समस्यायें सहजता से दूर करते हैं इसलिये इसका आभास नहीं होता।
कविवर रहीम कहते हैं कि
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रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिये डारि।
जहां काम आवे सुई, कहा करे तलवारि।।
‘‘बड़े लोगों को देखकर छोटे लोगों की उपेक्षा नहीं करना चाहिए। जहां सुई काम आती है वहां तलवार कुछ नहीं कर पाती।’’
हमारे साथ कुछ सामान्य लोग ऐसे होते हैं जिनके पास रहते हुए उनकी उपयोगिता का अनुभव नहीं होता इसलिये बड़ी हस्तियों से संपर्क बनाने लगते हैं। जबकि सच यह है कि बड़े तथा अमीर लोग केवल स्वार्थ की वजह से छोटे लोगों से संपर्क रखते हैं ताकि समय आने पर उनकी मदद मिल जाये न कि उनकी मदद करें। ऐसी अनेक घटनायें हुई हैं जिनमें लोग बड़े बड़े संपर्क होने का दावा करते हैं पर संकट आने पर उनको अपने आसपास के सामान्य लोगों की सहायता पर ही आश्रित रहना पड़ा है। साथ ही यह भी देखा गया है कि विपत्ति आने पर छोटे लोग फिर भी सहारा देते हैं जबकि बड़े लोग मुंह फेर लेते हैं।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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परमं यत्नमतिष्ठेत्सतेनानां निग्रहे नृपः
सोनानां निग्रहाददस्ययशो राष्ट्रं च वर्धते।
हिन्दी में भावार्थ-
चोरों को पकड़ने के लिये राजा या राज्यप्रमुख को पूरी तरह से कोशिश करना चाहिए। अगर वह ऐसा करता है तो राष्ट्र विकास करता है और प्रजा प्रसन्न होती है।
सर्वतो धर्मः षड्भागो राज्ञो भवति रक्षतः।
अधर्मादपि षड्भागो भवत्यस्य हयऽरक्षतः।।
हिन्दी में भावार्थ-
जो राजा या राज्य प्रमुख चोरों से अपनी प्रजा की रक्षा करता उसे समग्र प्रजा के पुण्य का उठा भाग प्राप्त होता है और जो ऐसा नहीं करता उसे प्रजा के पापों का छठा भाग दंड के रूप में प्राप्त होता है।
वर्तमान संदर्भ में सम्पादकीय व्याख्या-राजा और राज्य प्रमुख के कर्तव्यों का मनुस्मृति में व्यापक रूप से वर्णन किया गया है। राजा या राज्य प्रमुख के दायित्वों का निर्वहन एक धर्म के पालन की तरह होता है। जब कोई मनुष्य राजा या राज्य प्रमुख के पद पर प्रतिष्ठित होता है तब उसे राज्य धर्म का पालन करते हुए अपने प्रजाजनों की चोरों, अपराधियों तथा बेईमानों से रक्षा करना चाहिए। मज़ेदार बात यह है कि मनृस्मृति के जाति तथा स्त्री संबंधी अनेक संदेशों को समझ के अभाव में बुद्धिमान लोग अनर्थ के रूप में लेते हैं। आज के अनेक पश्चिमी शिक्षा से अभिप्रेरित विद्वान तथा वहीं की विचाराधारा के अनुगामी बुद्धिजीवी इन्हीं संदेशों के कारण पूरी मनृस्मुति को ही अपठनीय मानते हैं। निश्चित रूप से ऐसे बुद्धिजीवी सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक शिखर पुरुषों से प्रायोजित और संरक्षित हैं। आज के हमारे शिखर पुरुष कैसें हैं यह सभी जानते हैं। भारतीय अध्यात्म तथा दर्शन में वर्णित पाप पुण्य को अंधविश्वास इसलिये नहीं कहा जाता है कि हमारे बुद्धिजीवी कोई प्रशिक्षित ज्ञानी हैं बल्कि वह मनुस्मृति के अध्ययन से विरक्त होकर शुतुरमुर्ग की तरह अपने मन में मौजूद अपराध भावना से स्वयं छिपकर ऐसी ही सुविधा अपने आकाओं को भी देते हैं। जो राजा या राज्य प्रमुख अपनी प्रजा की चोरों, अपरािधयों तथा बेईमानों से रक्षा नहीं करता वह पाप का भागी बनता है, मगर मनु महाराज ने कभी यह सोचा भी नहीं था कि इस भारतवर्ष जैसी देवभूमि पर ही राज्य से संबंधित कुछ लोग असामाजिक, अपराधी तथा भ्रष्ट तत्वों से अपनी जनता की रक्षा बजाय उनको ही संरक्षण देकर महापाप करेंगे। जब कोई मनुस्मृति के संदेशों का विरोध करता है तो वह यकीनन ऐसे राज्य का समर्थन कर रहा है जो प्रजा की रक्षा ऐसे दुष्ट तत्वों से बचाने में नाकाम रहता है। स्पष्टतः आज के अनेक प्रसिद्ध बुद्धिजीवी इसलिये ही संदेह के दायरे में आते हैं क्योंकि वह किसी न किसी ऐसे व्यक्ति का समर्थन करते हैं जो राज्य धर्म का पालन नहीं करता।
ऐसा लगता है कि असामाजिक, अराजक, चोरी कर्म तथा अन्य अपराध के कार्यों और उनको संरक्षण देने में लगे लोग पाप पुण्य की स्थापित विचारधारा की चर्चा से अपने को दूर रखना चाहते हैं इसलिये ही वह भारतीय अध्यात्म की चर्चा सार्वजनिक होने से घबड़ाते हैं ताकि कहीं उनका मन सुविचारों की गिरफ्त में न आ जाये। वह अपने ही कुविचारों में सत्य पक्ष ढूंढते हैं। उनका नारा है कि ‘आजकल की दुनियां में चालाकी के बिना काम नहीं चलता।’ अपने पाप को चालाकी कहने से उनका मन संतुष्ट होता है और सामने सत्य कहने वाला कोई होता नहीं है और लिख तो कोई नहीं सकता क्योंकि प्रचार कर्म से जुड़े लोग उनके धन से प्रायोजित है। यही कारण है कि राम राज्य की बात करने वाले बहुत हैं पर वह आता इसलिये नहीं क्योंकि वह एक नारा भर है न कि एक दर्शन।

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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
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क्षीणस्य चैव क्रमशो दैवात् पूर्वकृतेन वा।
मित्रस्य चानुरोधेन द्विविधं स्मृतमासनम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
जब शक्ति क्षीण हो जाने पर या अपनी गलतियों के कारण चुप बैठना तथा मित्रों की बात का सम्मान करते हुए उनसे विवाद न करना यह दो प्रकार के शांत आसन हैं।
यदावगच्छेदायत्वयामाधिक्यं ध्रृवमात्मनः।
तदा त्वेचाल्पिकां पीर्डा तदा सन्धि समाश्चयेत्।।
हिन्दी में भावार्थ-
भविष्य में अच्छी संभावना हो तो वर्तमान में विरोधियों और शत्रुओं से भी संधि कर लेना चाहिए।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-किसी भी मनुष्य के जीवन में दुःख, सुख, आशा और निराशा के दौर आते हैं। आवेश और आल्हाद के चरम भाव पर पहुंचने के बाद किसी भी मनुष्य का अपने पर से नियंत्रण समाप्त हो जाता है। भावावेश में आदमी कुछ नहीं सोच पाता। मनु महाराज के अनुसार मनुष्य को अपने विवेक पर सदैव नियंत्रण करना चाहिये। जब शक्ति क्षीण हो या अपने से कोई गलती हो जाये तब मन शांत होने लगता है और ऐसा करना श्रेयस्कर भी है। अनेक बार मित्रों से वाद विवाद हो जाने पर उनके गलत होने पर भी शांत बैठना एक तरह से आसन है। यह आसन विवेकपूर्ण मनुष्य स्वयं ही अपनाता है जबकि अज्ञानी आदमी मज़बूरीवश ऐसा करता है। जिनके पास ज्ञान है वह घटना से पहले ही अपने मन में शांति धारण करते हैं जिससे उनको सुख मिलता है जबकि अविवेकी मनुष्य बाध्यता वश ऐसा करते हुए दुःख पाते हैं।
जीवन में ऐसे अनेक तनावपूर्ण क्षण आते हैं जब आक्रामक होने का मन करता है पर उस समय अपनी स्थिति पर विचार कना चाहिए। अगर ऐसा लगता है कि भविष्य में अच्छी आशा है तब बेहतर है कि शत्रु और विरोधी से संधि कर लें क्योंकि समय के साथ यहां सब बदलता है इसलिये अपने भाव में सकारात्मक भाव रखते स्थितियों में बदलाव की आशा रखना चाहिए।

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